
दुनिया भर के महत्वपूर्ण खनिज यहां पाये जाते हैं। विभिन्न प्रकार के कल-कारखाने को स्थापित करने के अलावा बड़े पैमाने पर बिजली पैदा करने की क्षमता भी है।झारखंड पर विस्तार से नजर डालने से पहले इसके इतिहास पर भी एक नजर डालना लाजमी होगा। आजादी से पहले पूरे झारखंड इलाके के मूल वासी को आदिवासी माना जाता था। जैसा कि सूचि में दर्ज है। उस समय के हिसाब से झारखंड का जो इलाका था उसमें बिहार के अलावा पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और मध्य प्रदेश का कुछ हिस्सा भी शामिल था।
आजादी से पहले जब इस इलाके का सर्वे किया जा रहा था तब यहां कई समुदायों को मूल आदिवासी माना गया। इसमें महत्वपूर्ण योगदान रहा एच एच रिजले का। इनके सर्वे का नोटिफिकेशन प्रकाशित किया, ब्रिटिश सरकार ने 1913 में। इसके बाद मानव विज्ञान के ज्ञाता डब्ल्यू.जी. लेसी ने एक सर्वे किया जिसकी रिपोर्ट प्रकाशित की गई 1931 में। इस रिपोर्ट के अनुसार तेरह समुदाय को यहां का मूल वासी घोषित किया गया जो यहीं के हैं। जिनका यहां के जमीन पर मूल अधिकार है।इन्ही समुदायों में से एक कुडमी महतो, जिन्हें आजकल कुर्मी- महतो कहा जाता है, उनकी जनसंख्या अकेले पूरे राज्य की संख्या के लगभग 25% है। 2001 की जनगणना के अनुसार बाकि आदिवासी समुदाय जो 31 प्रजातियों में बंटा हुआ है उनकी संख्या 26% है। बहरहाल, आजादी के बाद कुर्मी महतो का नाम आदिवासी सूचि से हटाकर पिछड़े वर्ग की सूचि में डाल में दिया। ऐसा कुछ और समुदाय के साथ भी हुआ वो भी बिना किसी नोटिफिकेशन के और बिना कारण के।झारखंड के मूल वासियों की जीवन मुलत: खेती और जंगल पर निर्भर है। यहां के मूल वासी आज भी पांरिपरिक तरीके से जीवन यापन करते हैं।
यहां की मुख्य फसल धान है। यहां के झरने-नदियां कल कारखानो के कारण प्रदूषित हो चुकी है। राज्य की जनसंख्या को मुख्यत: दो भागों में बांटा जा सकता है - मूलवासी और बाहर से आकर बसे हुए लोग। मूल वासी को विभाजित किया जा सकता है आदिवासी समुदाय(26 प्रतिशत), दलित समुदाय(10 प्रतिशत), पिछडा वर्ग और सामान्य वर्ग में। बाहर से आकर बसे हुए लोगों की संख्या मुश्किल से लगभग 20 प्रतिशत है। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकार की नौकरियों के अलावा व्यापार और हर प्रकार की आर्थिक गतिविधियों पर बाहर से आये हुए लोगों का हीं कब्जा है। यहां के जो मूल वासी है वे पूरी तरह शोषित हैं। उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है।झारखंड आंदोलन -बहरहाल, इसमें कोई दो राय नहीं कि झारखंड आंदोलन की शुरूवात बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में शुरू हुई। लेकिन इसका दायरा बहुत ही सीमित था। वो भी आदिवासी समुदाय के बीच। बाद में इसके दायरे को बढाया गया।
यह आंदोलन सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक और राजनीति शोषण के खिलाफ शुरू हुई। बाहर से आकर बसने वाले लोगों ने यहां के मूल वासियों का जबरदस्त शोषण किया।आजादी के बाद केन्द्र सरकार ने झारखंड अलग राज्य की मांग को खारीज कर दिया। क्योंकि पुनर्गठन राज्य आयोग के सामने अलग राज्य की मांग को लेकर एक गलत रिपोर्ट रखी गई था। बाद में उस समय के झारखंड नेता जयपाल सिंह कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गये 1963 में। 1956 से लेकर 1970 तक झारखंड आंदोलन छिन्न भिन्न हो गया।इस बीच 1968 में बिनोद बिहारी के नेतृत्व में “ शिवाज समाज” का गठन हुआ।
बिहारी महतो एक वकील होने के साथ साथ शिक्षाविद् और समाज सेवक भी थे। यह संगठन कुर्मी महतो समाज का एक सामाजिक संस्था था झारखंड इलाके में। इसके बाद वहां जो समाज शोषित था उनलोगों ने भी विनोद बिहारी महतो जी से प्रेरणा लेते हुए सामाजिक संगठन बनाये। इसी क्रम में शिबू सोरेन ने भी संथाल समाज को उपर लाने की मकसद से ‘सोनोत संथाल समाज’ का गठन किया।आपातकाल लागू होने से कुछ साल पहले 1973 में शिवाजी समाज और सोनोत संथाल को मिलाकर झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया गया बिनोद बिहारी के नेतृत्व में। श्री महतो इसके संस्थापक अध्यक्ष बने और शिबू सोरेन महासचिव। पार्टी का नाम झारखंड मुक्तो मोर्चा होगा यह सुझाव मैंने हीं दिया था। मैं बिनोद बिहारी महतो का ज्येष्ठ पुत्र हूं।झारखंड आंदोलन को नया जीवन दिया राजीव गांधी ने -यह सच्चाई है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने झारखंड आंदोलन को एक नया जीवन दे दिया 1989 में। जब उन्होंने अलग राज्य के मसले पर एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया –‘ The Committee on Jharkhand Matters’। इस समिति ने मई 1990 में एक रिपोर्ट केन्द्रीय गृह मंत्रालय के सामने रखी जो झारखंड आंदोलन के इतिहास में टर्निंग पॉइन्ट सिद्ध हुआ।दुर्भाग्यवश राजीव गांधी जी की हत्या हो गई मई 1991 में। फिर नरसिंह राव जी प्रधानमंत्री बने और झारखंड अलग राज्य मामले में बिनोद बिहारी महतो(सांसद गिरिडीह) के साथ बातचीत की। झामुमो के सभी सांसद भी थे। लेकिन राव साहब ने बातचीत के दौरान केन्द्रीय सरकार को समर्थन देने की बात की।
इस पर बिनोद बाबू तैयार हुए एक शर्त के साथ वो था कि अगर कांग्रेस पार्टी राजी होती है कि वो अलग झारखंड राज्य देने को तैयार है तब।बिनोद बाबू के निधन से आंदोलन को झटका -दुर्भाग्यवश मेरे पिताजी बिनोद बिहारी महतो जी का निधन( 18-12-1991) हो गया। यह झारखंड आंदोलन के लिए एक जोरदार झटका था। आंदोलन को भारी धक्का लगा। इसके बाद मै राजनीति में सक्रिय रूप से आया। पिताजी के निधन से खाली गिरिडीह लोक सभा सीट के लिए हुए उपचुनाव(11-05-1992) में मैं विजयी रहा।शिबू सोरेन झामुमो के अध्यक्ष बने। और पार्टी को एक तानाशाह के रूप में चलाने लगे। इतना ही उन्होंने अलग वृहद झारखंड राज्य की मांग को भी छोड़ दिया। और सिर्फ बिहार के हिस्से वाले झारखंड इलाके में स्वतंत्र परिषद के लिए राजी हो गये।
परिषद और बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को समर्थन देने के मुद्दे पर झामुमो दो भागों में विभाजित हो गई। मैं कांग्रेस के खिलाफ लालू यादव जी को समर्थन दिया वहीं शिबू सोरेन ने लालू की सरकार से समर्थन वापस ले लिया। शिबू सोरेन के साथ चार सांसद और 9 विधायक थे। दूसरी ओर झामुमो मार्डी के साथ दो सांसद और 9 विधायक रहे। कृष्णा मार्डी झामुमो(मार्डी) के अध्यक्ष बने और मैं महासचिव।झामुमो(मार्डी) के जबरदस्त विरोध और आंदोलन के बावजूद 24 दिसंबर 1994 को आदिवासी परिषद का गठन किया गया। इसे लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के अलावा भाजपा, वामपंथी और अन्य दलों का समर्थन प्राप्त था। प्रावधान ऐसा किया गया कि आदिवासी परिषद का अध्यक्ष आदिवासी हीं होगा। कुर्मी-महतो समुदाय को पूरी तरह नकार दिया गया जबकि झारखंड आंदोलन के लिए महतो समुदाय के अनेको लोग शहीद हुए और कुर्बानियां दी।
sangharsh purn jeevan ka abhinandan.
ReplyDeleteआप का स्वागत करते हुए मैं बहुत ही गौरवान्वित हूँ कि आपने ब्लॉग जगत मेंपदार्पण किया है. आप ब्लॉग जगत को अपने सार्थक लेखन कार्य से आलोकित करेंगे. इसी आशा के साथ आपको बधाई.
ReplyDeleteब्लॉग जगत में आपका स्वागत हैं,.
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ब्लोगिंग जगत में स्वागत है ।
ReplyDeleteलिखते रहें । शुभकामनाएं ।
thanks for your support and inspiring comments. looking forward for your help and support.
ReplyDeletewith regards,
rajkishore mahato