Saturday, May 29, 2010

वोट

वोट :
जब वह उस गांव से लौट रहा था, तो उसे बड़ा गर्व सा हो रहा था। चुनाव का मौसम था। सामने विधान सभा के लिए मतदान होना था। चुनाव में प्रचार की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। तमाम राजनैतिक दल के लोग अपने सामर्थ के हिसाब से चुनाव प्रचार में पूरे तामझाम के साथ लगे थे। जिन नेतओं ने कभी गांवो की तरफ रूख करना कभी मुनासिब न समझा था। गांवों की बदहाली एवं गरीबी से जिन्हें चिढ़ थी, वही लोग आज बड़ी-बड़ी गाड़ियों को सजाकर “गरीब-रथ” या “परिवर्त्तन-रथ” आदि बनाकर गांव के घूल-भरे कच्चे रास्तों में घूम रहे थे।
वोट जो लेना था। वह भी इसी राजनीति के चक्कर में आ चुका था। हुआ ऐसा था कि काम तो वह दुसरा करता था, पर अचानक ऐसी परिस्थिति आ गई कि उसे चुनाव में खड़ा होना पड़ा। उसके परिवार में एक बहुत नामी एवं बड़े नेता थे, जिनका अचानक निधन हो गया था। तो पार्टी ने उसे टिकट दे दिया था।
राजनीति में परिवारवाद अब चल निकला है। दक्षिणपंथी विचारधारा, वामपंथी विचारधारा की बातें सुनते थे। राजनीति में पहले पूँजीवाद, समाजवाद, मार्क्स, लेनीनवाद, माओवाद, गाँधावाद, मनुवाल आदि-आदि शब्द सुनते थे। फिर ब्राह्मणवाद जातिवाद आदि राजनीति में प्रजलित हुए। राजनीतिज्ञ भी पहला काम जो करते हैं वे हैं वादों के सहारे वोट माँगना। जनता भी नेताओं से उनके वादों को ही सुनना पसंद करती है। हाँ अब एक नयावाद आ गया है, राजनीति में वो है परिवारवाद। परिवारवाद आजकल खूब चल निकला है। सिर्फ राजनीति में ही नहीं धंधो, प्रोफेशनों में भी परिवारवाद खूब फूल रहा है।
डाक्टर के बेटे आसानी से डाक्टर बन जाते हैं। वकील के बेटे को बैठे-बैठाए मुअक्किल मिल जाते हैं। यहाँ तक कि इंजिनीयरों के बेटे भी इंजिनीयर बनना पसंद करते है। अभिनेताओं के बेटे अभिनेता बन रहे है। तो राजनीतिज्ञा के बेटों को भी जनता अब स्वीकार करने लगी है। परिवारवाद अब ग्राह्य है। इसकी अब अनुकुल आलोचना होती है, प्रतिकुल नहीं। अब लोग कहते हैं कि विरासत भी कोई चीज है। गुण तो विरासत से आते है।
हाँ तो उसे इस बात का संतोष था कि उस गांव के लोगों ने बड़े खामोश होकर उसकी बातों को सुना था। जाहिर है कि उसकी बातों में दम रहा होगा और गांव के लोगों को उसकी दलीलें अच्छी लगी होगी। तभी तो सभी गंभीर थे और चुप थे। नाराज होते तो उसका विरोध भी कर सकते थे। वैसे उसे डर भी था कि कहीं उसकी बात का वे बुरा न मान जाएँ। पर वैसा कुछ नहीं हुआ था।
बात यह है कि जब वह उस गांव में चुनाव प्रचार के दौरान पहुँचा, तो शाम हो रही थी। वह गांव उसके पैतृक गांव के पास ही पड़ता था। लिहाजा उस गांव के बहुत सारे लोग उसे न सिर्फ पहचानते ही थे, बल्कि व्यक्तिगत रूप से जानते भी थे। कई तो उसके बचपन एवं जवानी के साथी भी रह चुके थे। यह और बात है कि उसे वहाँ से बाहर चला जाना पड़ा था और वह बहुत आगे निकल आया था और वे लोग वहीं के वहीं थे।
जब वह वहाँ पहुँचा था तो पाया कि गांव के बहुत सारे लोग एक जगह बैठे थे और कुछ खा-पी रहे थे। लग रहा था कि कोई समारोह (फन्कसन) था। पर नजदीक जाने पर पता चला कि वैसी कोई बात नहीं थी और वहोँ इकठ्ठे लोग शराब पी रहे थे और शराब के साथ “चखना” चख रहे थे। रोज ही शाम को वैसी महफिलें लगती रही है। पता चला था कि उस गांव में अवैध शराब लाई जाती थी और बड़ा अच्छा कारोबार हो जाता था। इसीलिए गांव के लोगों को सस्ते में दारू मिल जाती थी। फूर्सत के समय यही शगल बन जाता था। अब गांव के लोगों के पास इतना काम भी नहीं था कि फूर्सत नहीं मिलती। खेती-किसानी का काम कम हो गया था। आखिर कोई इंतजाम रहे, तो खेती हो। खेत सूखे से ग्रस्त हो जाते। सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं। जैसे-तैसे खेती होती। गॉव के जो पढ़े-लिखे नौजवान थे, अब गाँव मे रहना नहीं चाहते। शहर की तरफ रोजगार की तलाश में भाग जाते। उस दिन तो कुछ विशेष ही बात थी, वहाँ जाने पर उसे पता चला था। गांव के सभी लोग वहाँ इकट्ठा हो गये थे, जब उसका काफिला वहाँ पहुँचा था। अच्छी खासी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। उसे देख वह बहुत ही उत्साहित हो उठा था। उसे लग रहा था कि गांव के लोगों के दिल में उसके प्रति बड़ा आदर-भाव है, तभी तो सभी इकट्ठे हो गये थे।
वहीं पर एक आदमी ने उसके कान में कहा था कि परसों ही वहाँ दूसरे प्रत्याशी श्री तिवारी जी पहुँचे थे। पूरी शाम गांव में रहे थे। उत वक्त भी लोग वहाँ इकट्ठे होकर शराब ही पी रहे थे। श्री तिवारी वहाँ गांव वालो के साथ चटाई बिछाकर बैठ गये थे। अपने एक सर्मथक को आनन-फानन में शराब की दुकान की तरफ दौड़ा दिया था, शराब की कई बोतलें लाई गई थी और खस्सी का मांस भी। वहीं भूनने का इंतजाम भी किया गया था। सो तिवारी जी ने भी गांव वालों को छक के शराब पीलाया। पीलाया ही नहीं, स्वयं भी ग्लास लेकर बैठे थे और उनके साथ चुस्कियाँ ली थी।
उसे पता चला कि श्री तिवारी के इस व्यवहार से गांववाले बहुत प्रभावित हो गये थे। जोर-जोर से तिवारी जी के जिंदाबाद के नारे लगाने लगे थे। और इससे पहले कि तिवारी जी भाषण करते गांव के लोगों ने वादा कर दिया था कि वे अपना वोट तिवारी जी को ही देंगे।
वाह! क्या नेता है ? ऐसा ही नेता होना चाहिए? जो आम जनता के साथ एकाकार हो सके। उसकी भावनाओं के साथ तालमेल बना सके। “वाह इतना बड़ा आदमी होते हुए भी हमारे साथ बैठ कर शराब पी” हमारे रंग में रंग गये श्री तिवारी ने मौके का फायदा उठाते हुए भाषण झाड़ा था कि चारों तरफ गरीबी है, भूखमरी है, आम आदमी के दु:ख दर्द को समझने वाला नहीं है। वे ही सिर्फ इस बात को समझते हैं। अगर शाम के वक्त ज्यादे गलत करते हैं तो कोई हर्ज नहीं है। अरे वर्षो से लोग ऐसा करते आए हैं। गांव में गुलामी करने वाले लोग आज तो सही माने में आजाद हुए हैं कि जैसा चाहें कर सके, वरना पहले किसी की क्या मजाल थी जो इतनी आजादी मिल पाती। श्री तिवारी ने जाते-जाते गांव में लाइसेंसी शराब की दूकान खोलवाने का वादा भी कर डाला था। ताकि लोग बिना डर के मौज कर सकें। वहाँ के लोग तिवारी जी की घोषणा से गद्-गद् हो उठे थे।
उसकी मीटिंग में भी उतने ही लोग उपस्थित थे जितने कि श्री तिवारी के। अत: उसके उत्साह में कोई कमी नहीं आई। वह सोचने लगा कि यह गांव तो उसका अपना है। सभी जाने पहचाने हैं। तिवारी तो इस क्षेत्र के हैं भी नहीं।
उसने बड़ी हिम्मत एवं उत्साह से अपना व्यक्तव्य रखा था। कहा था कि आज जो देश में गरीबी एवं बदहाली है, कानून-व्यवस्था में गिरावट है उसका एक प्रमुख कारण शराबखोरी है। अपने बाल-बच्चों को हमें शिक्षा देनी चाहिए एवं शराब नहीं पीना चाहिए। शराबखोरी से परिवार बर्बाद होता है। एक तो हमारी आर्थिक हालत दिन बदिन गिर रही है, ऊपर से अगर हम शराब में पैसा बर्बाद करते हैं तो हम अपने बच्चों की शिक्षा पर उचित ध्यान नहीं दे पाते हैं। इससे स्वास्थ्य खराब होता है।
उन्होनें शराब में जितनी बुराइयाँ शराब में हो सकती थी, गिना डाली। तथा गांव वालों को समझाने के अंदाज में शराबखोरी को त्यागने का इपदेश दे डाला। गांववालों ने बड़े धैर्य पूर्वक उनका भाषण सुना था। सभी ने उनके व्यक्तव्य को सराहा था कि बहुत अच्छी-अच्छी बातें बोलते हैं। पर उनके गोंव से निकल आने के बाद वहाँ गांव वाले जैसे तंदा से जगे थे और पुरानी हालत में वापस आ गये थे। सभी कहने लगे थे कि “बड़ा आया उपदेश देने वाला, हम अपने पैसे की पीते हैं, तो उसके बाप का क्या जाता है” बड़ा नेता बनता फिरता है, अरे हम एक साथ एक ही गलियों मे गिल्ली-डंडा खेले हैं, पर देखो! हमारे साथ बैठकर हमारे साथ शरीक नहीं हुआ। अपने को बड़ा ऊँचा एवं पवित्र समझता है। इससे तो अच्छा तिवारी जी हैं जो हमारे साथ जमीन पर बैठ गये और दारू तक पी, हमारा मन रखने के लिए। जो अभी से हमसे इतनी दूरी बनाके रखा तो आगे चुनाव जित जाने के बाद क्या करेगा। “बड़ा आदमी है, तो अपने घर का है।“
लोगों ने शराब पी ही रखी थी। किसी ने यहाँ तक कह दिया “साला अपने आप को क्या समझता है, आया था नसीहत देने। सब पता चल जायेगा।“ गांववालों को उसकी नसीहत अच्छी नहीं लगी थी। वे शायद उसके सामने किसी प्रकार की हीन-भावना से ग्रस्त हो गये थे। उसे इस बात का अंदाजा नहीं था कि लोगों ने उसकी बात का बुरा माना था।
चुनाव के खत्म होने पर मतगणना का दिन आया। उसने बड़ी उत्सुकता से उस गांव में पड़े मतो के परिणाम का इन्तजार किया था। उसे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि उस गांव के तमाम वोट श्री तिवारी को मिले थे। उसे एक भी मत नहीं मिला था।