Monday, October 26, 2009

मूल वासियों का शोषण नहीं रूका तो झारखंड में स्थिति विस्फोटक हो सकती है

बिहार के छोटानागपुर पठार और संथाल परगना इलाके को मिलाकर वर्तमान झारखंड राज्य का गठन किया गया। राज्य का क्षेत्रफल है लगभग 1.90 लाख किलोमीटर और 1981 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या एक करोड़ अस्सी लाख। आज की तारीख में राज्य की संख्या है लगभग दो करोड़ 75 लाख। राज्य पहाड़-पठार, नदी-झरने और समतल मैदान सहित घने जंगल से भरा पड़ा है।

दुनिया भर के महत्वपूर्ण खनिज यहां पाये जाते हैं। विभिन्न प्रकार के कल-कारखाने को स्थापित करने के अलावा बड़े पैमाने पर बिजली पैदा करने की क्षमता भी है।झारखंड पर विस्तार से नजर डालने से पहले इसके इतिहास पर भी एक नजर डालना लाजमी होगा। आजादी से पहले पूरे झारखंड इलाके के मूल वासी को आदिवासी माना जाता था। जैसा कि सूचि में दर्ज है। उस समय के हिसाब से झारखंड का जो इलाका था उसमें बिहार के अलावा पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और मध्य प्रदेश का कुछ हिस्सा भी शामिल था।

आजादी से पहले जब इस इलाके का सर्वे किया जा रहा था तब यहां कई समुदायों को मूल आदिवासी माना गया। इसमें महत्वपूर्ण योगदान रहा एच एच रिजले का। इनके सर्वे का नोटिफिकेशन प्रकाशित किया, ब्रिटिश सरकार ने 1913 में। इसके बाद मानव विज्ञान के ज्ञाता डब्ल्यू.जी. लेसी ने एक सर्वे किया जिसकी रिपोर्ट प्रकाशित की गई 1931 में। इस रिपोर्ट के अनुसार तेरह समुदाय को यहां का मूल वासी घोषित किया गया जो यहीं के हैं। जिनका यहां के जमीन पर मूल अधिकार है।इन्ही समुदायों में से एक कुडमी महतो, जिन्हें आजकल कुर्मी- महतो कहा जाता है, उनकी जनसंख्या अकेले पूरे राज्य की संख्या के लगभग 25% है। 2001 की जनगणना के अनुसार बाकि आदिवासी समुदाय जो 31 प्रजातियों में बंटा हुआ है उनकी संख्या 26% है। बहरहाल, आजादी के बाद कुर्मी महतो का नाम आदिवासी सूचि से हटाकर पिछड़े वर्ग की सूचि में डाल में दिया। ऐसा कुछ और समुदाय के साथ भी हुआ वो भी बिना किसी नोटिफिकेशन के और बिना कारण के।झारखंड के मूल वासियों की जीवन मुलत: खेती और जंगल पर निर्भर है। यहां के मूल वासी आज भी पांरिपरिक तरीके से जीवन यापन करते हैं।
यहां की मुख्य फसल धान है। यहां के झरने-नदियां कल कारखानो के कारण प्रदूषित हो चुकी है। राज्य की जनसंख्या को मुख्यत: दो भागों में बांटा जा सकता है - मूलवासी और बाहर से आकर बसे हुए लोग। मूल वासी को विभाजित किया जा सकता है आदिवासी समुदाय(26 प्रतिशत), दलित समुदाय(10 प्रतिशत), पिछडा वर्ग और सामान्य वर्ग में। बाहर से आकर बसे हुए लोगों की संख्या मुश्किल से लगभग 20 प्रतिशत है। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकार की नौकरियों के अलावा व्यापार और हर प्रकार की आर्थिक गतिविधियों पर बाहर से आये हुए लोगों का हीं कब्जा है। यहां के जो मूल वासी है वे पूरी तरह शोषित हैं। उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है।झारखंड आंदोलन -बहरहाल, इसमें कोई दो राय नहीं कि झारखंड आंदोलन की शुरूवात बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में शुरू हुई। लेकिन इसका दायरा बहुत ही सीमित था। वो भी आदिवासी समुदाय के बीच। बाद में इसके दायरे को बढाया गया।

यह आंदोलन सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक और राजनीति शोषण के खिलाफ शुरू हुई। बाहर से आकर बसने वाले लोगों ने यहां के मूल वासियों का जबरदस्त शोषण किया।आजादी के बाद केन्द्र सरकार ने झारखंड अलग राज्य की मांग को खारीज कर दिया। क्योंकि पुनर्गठन राज्य आयोग के सामने अलग राज्य की मांग को लेकर एक गलत रिपोर्ट रखी गई था। बाद में उस समय के झारखंड नेता जयपाल सिंह कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गये 1963 में। 1956 से लेकर 1970 तक झारखंड आंदोलन छिन्न भिन्न हो गया।इस बीच 1968 में बिनोद बिहारी के नेतृत्व में “ शिवाज समाज” का गठन हुआ।

बिहारी महतो एक वकील होने के साथ साथ शिक्षाविद् और समाज सेवक भी थे। यह संगठन कुर्मी महतो समाज का एक सामाजिक संस्था था झारखंड इलाके में। इसके बाद वहां जो समाज शोषित था उनलोगों ने भी विनोद बिहारी महतो जी से प्रेरणा लेते हुए सामाजिक संगठन बनाये। इसी क्रम में शिबू सोरेन ने भी संथाल समाज को उपर लाने की मकसद से ‘सोनोत संथाल समाज’ का गठन किया।आपातकाल लागू होने से कुछ साल पहले 1973 में शिवाजी समाज और सोनोत संथाल को मिलाकर झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया गया बिनोद बिहारी के नेतृत्व में। श्री महतो इसके संस्थापक अध्यक्ष बने और शिबू सोरेन महासचिव। पार्टी का नाम झारखंड मुक्तो मोर्चा होगा यह सुझाव मैंने हीं दिया था। मैं बिनोद बिहारी महतो का ज्येष्ठ पुत्र हूं।झारखंड आंदोलन को नया जीवन दिया राजीव गांधी ने -यह सच्चाई है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने झारखंड आंदोलन को एक नया जीवन दे दिया 1989 में। जब उन्होंने अलग राज्य के मसले पर एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया –‘ The Committee on Jharkhand Matters’। इस समिति ने मई 1990 में एक रिपोर्ट केन्द्रीय गृह मंत्रालय के सामने रखी जो झारखंड आंदोलन के इतिहास में टर्निंग पॉइन्ट सिद्ध हुआ।दुर्भाग्यवश राजीव गांधी जी की हत्या हो गई मई 1991 में। फिर नरसिंह राव जी प्रधानमंत्री बने और झारखंड अलग राज्य मामले में बिनोद बिहारी महतो(सांसद गिरिडीह) के साथ बातचीत की। झामुमो के सभी सांसद भी थे। लेकिन राव साहब ने बातचीत के दौरान केन्द्रीय सरकार को समर्थन देने की बात की।

इस पर बिनोद बाबू तैयार हुए एक शर्त के साथ वो था कि अगर कांग्रेस पार्टी राजी होती है कि वो अलग झारखंड राज्य देने को तैयार है तब।बिनोद बाबू के निधन से आंदोलन को झटका -दुर्भाग्यवश मेरे पिताजी बिनोद बिहारी महतो जी का निधन( 18-12-1991) हो गया। यह झारखंड आंदोलन के लिए एक जोरदार झटका था। आंदोलन को भारी धक्का लगा। इसके बाद मै राजनीति में सक्रिय रूप से आया। पिताजी के निधन से खाली गिरिडीह लोक सभा सीट के लिए हुए उपचुनाव(11-05-1992) में मैं विजयी रहा।शिबू सोरेन झामुमो के अध्यक्ष बने। और पार्टी को एक तानाशाह के रूप में चलाने लगे। इतना ही उन्होंने अलग वृहद झारखंड राज्य की मांग को भी छोड़ दिया। और सिर्फ बिहार के हिस्से वाले झारखंड इलाके में स्वतंत्र परिषद के लिए राजी हो गये।

परिषद और बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को समर्थन देने के मुद्दे पर झामुमो दो भागों में विभाजित हो गई। मैं कांग्रेस के खिलाफ लालू यादव जी को समर्थन दिया वहीं शिबू सोरेन ने लालू की सरकार से समर्थन वापस ले लिया। शिबू सोरेन के साथ चार सांसद और 9 विधायक थे। दूसरी ओर झामुमो मार्डी के साथ दो सांसद और 9 विधायक रहे। कृष्णा मार्डी झामुमो(मार्डी) के अध्यक्ष बने और मैं महासचिव।झामुमो(मार्डी) के जबरदस्त विरोध और आंदोलन के बावजूद 24 दिसंबर 1994 को आदिवासी परिषद का गठन किया गया। इसे लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के अलावा भाजपा, वामपंथी और अन्य दलों का समर्थन प्राप्त था। प्रावधान ऐसा किया गया कि आदिवासी परिषद का अध्यक्ष आदिवासी हीं होगा। कुर्मी-महतो समुदाय को पूरी तरह नकार दिया गया जबकि झारखंड आंदोलन के लिए महतो समुदाय के अनेको लोग शहीद हुए और कुर्बानियां दी।

Wednesday, October 14, 2009

गरीबों के मसीहा थे बिनोद बाबू

झारखंड के मूलवासियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता था। उनके जमीन जायदाद हीं नही हड़पे जाते थे बल्कि आवाज उठाने वालों की हत्या कर दी जाती थी। पुलिस भी शोषण करने वालो का हीं साथ देती थी। न्यायलय तक गरीबों की पहुंच नहीं थी। वे कोर्ट कचहरी के नियम-कानून से परिचित नहीं थे। ऐसे में झारखंड के गरीबों के लिए उठ खड़े हुए बिनोद बिहारी महतो। इन्होंने सीधी कारवाई का एलान किया। लोग जागरुक हुए। पारंपरिक हथियार उठाए। प्रशासन सकते में आ गई। बिनोद बाबू को झारखंड वासी अपना मानने लगे। उन्हें जेल में डाल दिया गया। माननीय न्यायधीश ने उनसे कहा कि यदि आप शांति का आश्वासन दें तो आपको छोड़ा भी जा सकता है। लेकिन बिनोद बाबू ने ऐसा कोई आश्वासन देने के वजाय जेल में रहना मंजूर किया। कहा जाता है कि यदि बिनोद बाबू न्यायलय के समक्ष उस समय सरेंडर कर देते तो गरीबो पर जुल्म झारखंड में कम होने की वजाय और तेजी से बढ जाती। और अलग झारखंड राज्य की मांग वहीं समाप्त हो जाती। इमरेजेंसी के दौरान सरकार ने बिनोद बाबू के साथ न्याय नहीं किया।

देश का उच्चतम न्यायलय। इसकी विशाल एवं भव्य इमारत। उपर बने खूबसूरत गुम्बद। भीड़। चहल-पहल। काले कोर्ट वालों का कार्यस्थल। एक सम्मोहन सा पैदा करने वाला और मैं बार-बार उस इमारत के अंदर जाता और चारो ओर देखता रहता। वर्ष 1975 की बात है। देश में इमरजेंसी लागू हो चुकी थी। विरोधी दलों के नेताओं सहित कई अन्य प्रकार के अपराधियों की धर-पकड़ बढ गई थी। निषेद्यज्ञा कानून के तहत सभी जगहों पर पूरे देश में पुलिस एवं प्रशासन सक्रिय था। निषेद्यज्ञा कानून का जमकर इस्तेमाल किया जा रहा था। देश के कचहरियों में, हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में मुकदमों की तादाद बढ रही थी।बिनोद बाबू ‘मिसा’ के तहत गिरफ्तार और मैं वकील की तलाश में -मेरे पिता श्री बिनोद बिहारी महतो को भी आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत, जिसे बोल चाल की भाषा में ‘मीसा’(मेन्टेनेन्स ऑफ सेक्यूरिटी एक्ट) कहा जाता था, गिरफ्तार कर लिया गया था। उन्हीं को छुड़वाने के लिये मैंने सुप्रीम कोर्ट में हाई कोर्ट के खिलाफ याचिका दायर की थी। दिनांक 1 अक्टूबर 1975। उस दिन सुनवाई की आखिरी तारीख थी। जस्टीस पी. एन. भगवती एवं सरकारिया की खंडपीठ में सुनवाई चली थी। मेरे वकील श्री सिन्हा ने बहस किया था। श्री सिन्हा को पहले से में नहीं जानता था। हुआ यों की मैं उस वक्त के नामी-गिरामी वकील श्री अशोक सेन को इस मुकदमे की पैरवी के लिये रखना चाहता था। और इसके लिये मैं अपने चचरे भाई के साथ जो मात्र बीस साल के आसपास का रहा होगा, के साथ दिल्ली आया था। मेरी उम्र भी उस समय सताइस-अठाइस वर्ष की थी। इमरजेंसी के उस दौरान मेरे पास ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जो मुझे सलाह दे सकता था और कोर्ट-कचहरियों के चक्कर लगाता। हालत तो यहां तक खराब थी कि कोई हमारे घर पर या आसपास भी डर के मारे भटकता भी नहीं था।एडवोकेट और देश के कानून मंत्री अशोक सेन से मुलाकात -हम श्री सेन के यहां रात आठ बजे पहुंचे थे। श्री सेन उस वक्त भारत सरकार के कानून मंत्री थे। जब हम उनके बंगले के पास ऑटो से पहुंचे तो पता चला कि वे देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से मुलाकात करने गये थे और लौटने वाले थे। मैं वहीं उनका इंतजार उनके बैठक रूम में अन्य लोगों के साथ करने लगा। वहां टेलीविजन चल रहा था और लोगों को चाय पिलाई जा रही थी। हम वहां चुपचाप बैठे थे। उनके एक कर्मचारी श्री मौइता ने मुझे श्री सेन से मिलवाने का आश्वासन दिया था।रात के नौ बजे श्री सेन आए। उनके साथ कई गाडियां थी। वे अपने चेंबर में घुसे और एक-एक कर सभी लोगों को बुलाना शुरू किया। आधे घंटे के बाद हमें भी वहां ले जाया गया। श्री सेन के बंगले में चारो तरफ दीवारों पर आलमारियां बनी थी और गलियारों तक में रैक बने थे। सभी में किताबे थी। मेरे लिए इतने बड़े लाइब्रेरी को देखना भी एक सौभाग्य हीं था।मैं आश्चर्य के साथ उनके चेम्बर की भव्यता को निहार ही रहा था कि श्री सेन ने आने के कारण पूछा। मैंने सारी बाते उन्हें बताई। उन्होंने बताया कि वे मेरे पिताजी के नाम से वाकिफ थे। पर अभी वे उनका केस ले नहीं सकते थे। उन्होंने कहा कि वे एक महीना तक बहुत व्यस्त हैं। और मुझे दूसरे वकील के पास जाने को कहा। बातचीत के क्रम में वे मुझसे काफी प्रभावित सा नजर आये और उन्होंने मुझसे पूछा था कि क्या आप एक वकील हैं ? मैंने बताया कि मैं एक माइनिंग इंजीनियर था। श्री सेन के केस लेने से मना करने पर मेरा चेहरा उतर सा गया था, जिसे उन्होंने भांप लिया था। उन्होंने उस समय अपनी पत्नी को आवाज दी – ‘ओगे सुन छो’ बंगला में पुकारा। उनकी पत्नी आई तो उन्होंने कहा कि जाओ इन दोनो को मिठाई खिलाकर विदा करो।मुझे श्री सेन के इस व्यवहार से बड़ा आश्चर्य हुआ। यह बात मैं कभी भूल नहीं पाता कि उनकी पत्नी मुझे एवं मेरे चचेरे भाई को अन्दर ले गई एवं रसगुल्ला खिलाया था एक नहीं चार-चार।और सम्मान में बाहर तक छोड़ने भी आई थीं।पुलिस से डर भी लग रहा था -जब हम बाहर निकले तो रात के दस बज चुके थे। सड़क पर चारो ओर सन्नाटा पसरा हुआ था। वहां आसपास कोई टैक्सी या ऑटो रिक्सा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। मैं परेशान हुआ कि चांदनी चौक के अपने हॉटल तक कैसे जाया जाये। कोई चारा नहीं देखकर हम सीधे अंदाज से चांदनी चौक की ओर बढने लगे। रास्ते में पुलिस गुजरती तो हम सहम जाते। इस इमरजेंसी में पता नहीं किसे पकड़ ले पुलिस। इतनी रात को सड़क के किनारे में चलने में भी डर सा लग रहा था। हम सीधे चलते रहे। आंधे घंटे के बाद हम कनॉट प्लेस पहुंच चुके थे। इस इलाके को पहचानने लगा था। दिल्ली में रास्ते को पहचानना भी नये आदमी के लिये मुश्किल होता है। वहां हमें दूर एक ऑटो जाते दिखा। मैंने आवाज देने की कोशिश की लेकिन आवाज हीं नहीं निकली। गनीमत था कि हमें देखकर ऑटो वाला हमारे पास आ गया। पांच रूपये में चांदनी चौक चलने को राजी हुआ। चांदनी चौक के हॉटल पर रात साढे बारह बजे पहुंचे। वहीं नीचे ठेले पर खाना खाया और सो गया। चांदनी चौक के उस पुराने से होटल में मैं दिल्ली यात्रा के दौरान ठहरता था। सौलह रुपये में डबल बेड का कमरा मिल जाता था। संडास अलग से बाहर था। वहीं से मुकदमें की पैरवी के लिए सुप्रीम कोर्ट आता और इधर-उधर घूमता रहता। खैर, श्री सेन ने मुझे श्री सिन्हा के पास भेजा था। हमारे हाई कोर्ट के वकील श्री राम नन्दन सहाय ने भी श्री सिन्हा का नाम सुझाय था।हक की लड़ाई के लिए पिताजी की जेल यात्रा 1968 में शुरू हुई -1968 ई. में मैंने भारतीय खनि विद्यालय (इंडियन स्कूल ऑफ माईन्स) से माइनिंग इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की थी। उस जमाने में वहां दाखिला बड़ी मुश्किल था। अखिल भारतीय स्तर की परीक्षा होती थी। माइनिंग ब्रांच की मात्र 90 सीटें थी। भारत के और किसी भी जगह माइनिंग की इस स्तर की पढाई नहीं होती थी। माईनिंग की पढाई हीं देश में दो-तीन जगहों पर होती थी।वहां से पास कर जाने के बाद मैं एन.सी.डी.सी. नेशनल कोल डेभलपमेंट कॉरपोरेशन सुदामडीह में नौकरी पर गया । वहीं एक होस्टल में जगह मिली थी, पर धनबाद पास में ही था, सो घर पर ही रहता था। कभी कभी वहां भी रहना पड़ता।मेरी शादी जब मैं इंजीनियरिंग के आखरी वर्ष में था, कर दी गई थी। मेरे दो लड़के भी 1974 तक पैदा हो गये थे। रजनीश एवं राजेश। मुझे आज तक यह बात समझ में नहीं आई कि आखिर माइनिंग का जॉब मैंने छोड़ा क्यों था ? 1968 ई. से ही पिताजी ‘शिवाजी समाज’ नामक जातीय संस्था चलाने लगे थे। फिर 1973 में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया था। उससे पहले वे कम्यूनिष्ट पार्टी के नेता रहे थे। उन्हें अन्याय बिल्कुल हीं बर्दास्त नहीं होता था। खासकर अन्याय करने वाले से ज्यादा वे अन्याय सहने वालों पर नाराज होते थे। उनके नेतृत्व में उग्र विरोध एवं उग्र आन्दोलन होने लगे थे। इन्हीं कारणों से उनपर दर्जनो केस हो गये थे।इधर 1971 में मैं सुदामडीह छोड़ दिया था। पिताजी बहुत नाराज थे। पर उसी साल मैंने रांची के लॉ कालेज में दाखिला ले लिया था। इससे धीरे धीरे उनकी नाराजगी कम हो गई थी। 1968 से ही पिताजी बार बार जेल जाने लगे थे। घर में अशांति का वातावरण रहता। सभी डरे रहते। छोटे भाई बहन सभी स्कूल कॉलेज में पढ रहे थे।
भाग - दो
आपातकाल के दौरान बिनोद बाबू की जेल यात्रा - 1975 ई. मार्च महीने की तारीख बड़ी कष्ट लेकर आई थी। पिताजी को धनबाद जिला कोर्ट से जहां वे वकालत करते थे, पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। और उन्हें धनबाद में नहीं रख कर कतरास थाने ले गई थी। फिर एक दिन बाद धनबाद जेल भेजा था। उनका बेल संबंधित केस में हो गया था, पर जब वे जेल से निकलने ही वाले थे कि उन्हें निषेद्यज्ञा कानून के तहत पुन: जेल में बंद कर दिया गया। ‘मीसा’ ‘पोटा’ की तरह हीं एक ऐसा कानून था जिसमें जिले के उपायुक्त यानि डिस्ट्रीक मजिस्ट्रेट किसी व्यक्ति को एक साल तक के लिए जेल में बंद रखने के लिए आदेश कर सकता था। उसके लिए उसे किसी तार्किक निर्णय पर नहीं पहुंचना पड़ता था। इतना ही काफी था कि उसके पास ऐसे आधार थे जिससे उसे लगता कि इस व्यक्ति को गिरफ्तार कर लेना है। यहां ऑबजेक्टिव नहीं सब्जेक्टिव की बात थी। मीसा यानि मेन्टेनेन्स ऑफ इंटरनल सेक्यूरीटी एक्ट का खुलकर दुरूपयोग हो रहा था। देश में इमरजेंसी लगी थी। विपक्ष की नेताओं को धड़ले से अंदर किया जा रहा था। पिताजी को भागलपुर सेंट्रल जेल ले जाया गया था। धनबाद में प्रशासन को जनाक्रोश और धरना प्रदर्शन का सामना करना पड़ रहा था।इमरजेंसी के दौरान अपने भी कन्नी काटने लगे -हम विचित्र परिस्थिति में फंस चुके थे। मेरा कैरियर तो खत्म हो चुका था। माइनिंग छुट गया था। अगर दुबारा कोलयरी जाता तो घर कौन संभालता। लिहाजा पिताजी को छुड़ाने और घर की व्यवस्था में जुट गया। उस समय इमरजेंसी के डर से नाते-रिश्तेदार भी घर पर नहीं आते थे। पिताजी के पहचान वाले, उनसे उपकृत लोग भी हमसे कन्नी काट लेते थे। कहीं से आर्थिक मदद के बारे में सोचना भी कठीन था। मेरी एक पुरानी ट्रक थी और एक छोटा सा मोजाइक टाडल्स बनाने का यूनिट था। खर्चा इन्हीं से चलाना पड़ता था। बाकि कुछ किराया आ जाता था। मैं जब धनबाद में होता, सुबह छह बजे उठकर झरीया चला जाता और ट्रक पर कोयला लोड करवाता और फिर लोटकर दूसरा काम। बच्चों का दाखिला स्कूल में करा दिया था।हाईकोर्ट में एडवाइजरी बोर्ड के समक्ष पेशी -इस बीच पिताजी को पटना हाईकोर्ट में एडवाइजरी बोर्ड के समक्ष पेश करना था। गिरफ्तार होने के बाद, इसके अवधि की पुष्टि यही बोर्ड करती थी जिसमें हाई कोर्ट के तीन जज हुआ करते थे। पिताजी की केस में माननीय मुख्य न्यायधीश के.बी.एन. सिंह एवं अन्य दो जज बोर्ड में थे। उन्हें जिस तारीख को पटना लाया गया, मैं वहां उपस्थित था। हाई कोर्ट परिसर में उन्हें सीधे भागलपुर सेन्ट्रल जेल से जीप में बैठा कर लाया गया था। पुलिस की गारद थी। वे हाई कोर्ट की सीढियों को चढते हुए ऊपर आये एवं गैलियारे में बढने लगे।पूरे हाई कोर्ट में सनसनी फैली थी। एक वकील को मीसा के तहत गिरफ्तार किया गया था। वकील काफी उत्सुक थे। और तरह-तरह की बातें हो रही थी। बातें एवं चर्चाएं तो उस दिन से हो रही थी जब से वे राजनीति में सक्रिय हुए थे। पिछड़े वर्ग का महतो समुदाय का झारखंड क्षेत्र का आदमी बड़ी बड़ी बातें करता था। वे पहले वकील थे अपने समुदाय जिला कोर्ट में। वैसे हीं सभी टेढी नजर से देखते थे। ऊपर से सफल वकील और राजनीतिज्ञ। 6 मार्च 1975 में टुंडी प्रखंड के किसी केस में धर लिये गये। बेल पीटीशन सी.जी.एम के यहां किसी केस में दाखिल हुआ। ग्यारह मार्च तक कोई ऑडर नहीं दिया। सेसन्स जज के यहां 14 मार्च को बेल पीटीशन दाखिल हुआ। जमानत तो दे दिया गया लेकिन मेजिस्ट्रेट ने जमानतदार के कागज को देखने में चार दिन लगा दिया। 18 मार्च को छोड़ने का आदेश हुआ। उसी तारीख को उन्हें छोड़ा नहीं जा सका। रीलीज ऑर्डर कोर्ट से जेल जाने में तीन दिन लगा। 21 मार्च को रिहा होकर जेल गेट से बाहर निकले ही थे कि पुन: गिरफ्तार किया गया मीसा के तहत एवं फिर उल्टे पांव अंदर कर दिया गया। वहीं मीसा का नोटिस उन्हें दिया गया। उस नोटिस में उपायुक्त ने गिरफ्तारी के आदेश पर 18 मार्च को हस्ताक्षर किया था। ऐसा प्रतित होता है कि कोर्ट को पता था कि अब उन्हें मीसा में लिया जायेगा और आदेश पर हस्ताक्षर होने ही वाले हैं। तभी तो 11 मार्च 1975 से 21 मार्च 1975 तक बेलर के कागजात की जांच में तथा जमानत आदेश को जेल तक भिजवाने में लग गये।पिताजी पर आरोप था कि उनकी हरकतों के चलते लोक व्यवस्था पब्लिक ऑर्डर भंग हो रही थी और इस लोक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उन्हें जेल में एक वर्ष तक बन्द रखना जरूरी था। इस संबंध में कई मुकदमों का जिक्र किया गया था, जो पिताजी के चलते हुए एवं कई घटनाओं को उदाहरण स्वरूप नोटिश में दिया गया था जिससे लोक व्यवस्थ चरमरा गई थी।29 अगस्त 1973 गोमो फुटबॉल मैदान की मीटिंग, 3 नवंबर 1973 गोमो फुटबॉल मैदान की मीटिंग, 4 फरवरी 1974 गोल्फ मैदान धनबाद की मीटिंग, 25 फरवरी 1874 कतरास सिरामिक की घटना, 1 नवंबर 1973 मोरचोकोचा महतो टांड की घटना, 3 मार्च 1974 सिंहडीह में जीटी रोड पर जुलूस, 5 मार्च 1974 में दुमुन्डा, टुंडी में हुए मारपीट की घटना जिसमें कई आदिवासी मारे गये थे। वे बड़े गर्व से सीना ताने आगे बढ रहे थे। वे अपने सिद्धांतों के प्रति पूरी तरह कमीटेड थे।तत्कालीन व्यवस्था में बिनोद बाबू को विश्वास नहीं था -वे इस व्यवस्था को शासन करने की प्रणाली को शोषण पर आधारित समझते थे। ऐसा शोषण जो मेहनतकश, शारीरिक श्रम करने वालों, खेती करने वाले किसान एवं मजदूरों के शोषण पर टिका है और चंद ‘पेरासाइट’ जो शारीरिक श्रम नहीं करते सिर्फ दूसरों को आदेश देने का काम करते हैं मौज कर रहें हैं। इस समाज व्यवस्था में उनकी पूछ उनका स्तर, उनका वेतन, उनका मूल्य शारीरिक श्रम करने वालों से बहुत ज्याद होता है। जबकि शारीरिक श्रम करने वालों को हेय समझा जाता है। एक वकील होने के बाद उन्हें इस व्यवस्था का काफी ज्ञान हो गया था। और उनका विश्वास अपने सिद्धांतों के प्रति और बढ गया था। कानून प्रक्रिया की जटिलताएं एवं खर्च के कारण अनपढ इस कानूनी लड़ाई के माध्यम से अपना हक एवं अधिकार प्राप्त नहीं कर सकते। छोटानागपुर टेनेन्सी एक्ट 1908 को ही ले। इसमें एक प्रावधान है कि आदिवासियों-हरिजनों यानि अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों की जमीनें कोई दूसरा गैर आदिवासी नहीं खरीद सकता। उनका हस्तानांतरण होगा पर अपने हीं दूसरे जनजाति या जाति के साथ, पर उनमें भी जिले की क्लेकटर की अनुमति की आवश्यता जरूरी है। पर इस कानून के रहते आदिवासिय-दलित समुदाय के जमीनों का हस्तांतरण होता रहा और गैर आदिवासी-दलित समुदाय के लोगों के हाथों में जाता रहा।यह कानून इतना कठोर है कि हस्तांतरण रद्द भी किया जा सकता है। पर यह कानून लागू नहीं हो पाया। बिनोद बिहारी महतो ने इसके लिये सीधी लड़ाई का रास्ता अपनाया यानि जो जमीन गलत ढंग से गैर आदिवासियों के कब्जे में चली गई थी, उसे प्राप्त करने के लिये कानून का दरवाजा नहीं खटखटाकर सीधे उस जमीन पर खड़ी फसल काट लेने का उन्होंने रास्ता बताया और इस प्रकार कई जगहों में ‘धान कटनी’ का प्रसिद्द आंदलोन शुरू हो गया। इसी कारण तथा उनके द्वारी चलाये गये अलग झारखंड राज्य के आंदोलन को दबाने के लिये उन्हें कई मामलों में अभियुक्त बनाया गया। उन्हें इसी कारण ताकि उनकी गति विधियों पर रोक लगे उन्हें ‘मीसा’ के तहत बंद कर दिया गया।पटना उच्च न्यायलय की गैलरी से पार होते हुए उन्होने मुझे देखा। उनके चेहरे पर क्षण भर के लिये उदासी की लकीर दौड़ गई। पुलिस वाले उनके साथ थे। और भी लोग उन्हें देखने के लिए आगे बढ गये थे। अत: मैं वहीं खड़ा रहा। वे आगे बढे और उन्हें एक कक्ष में ले जाया गया। मैं भी उसमें दाखिल हुआ तो देखा कि वहां पटना उच्च न्यायलय के मुख्य न्यायधीश माननीय श्री सिंह एवं अन्य दो न्यायधीश बैठे थे। कमरे में धनबाद के उपायुक्त श्री झा एवं अन्य पदाधिकारी उपस्थित थे।
भाग - तीन
जेल जाना मंजूर था लेकिन सिद्धांत से समझौत करना नहीं -बिनोद बाबू को एडवाइजरी बोर्ड के सामने प्रस्तुत किया गया। ‘मीसा’ में ऐसा प्रावधान है। चाहते तो वे यहां छूट सकते थे। अगर वे झुक जाते, कोई अंडरटेकिंग करते को भविष्य में इस प्रकार की गति विधियों में लिप्त नहीं रहेंगे तो उन्हें छोड़ा जा सकता था।पर उनहोंने अपने उपर लगाये गये आरोपो का कोई खंडन नहीं किया बल्कि वहां पर वे कांग्रेस सरकार द्वारा किये जार रहे जुल्म की बात सामने रखा। धनबाद में सूदखोरों, महाजनों और माफियाओं के खिलाफ बोला। बिनोद बाबू ने आरोप लगाया कि धनबाद के उपायुक्त असमाजिक तत्वों को बढावा दे रहे हैं और उनके खिलाफ लड़ने वालों को जेल भिजवा रहे हैं।ऐसी स्थिति में जाहिर है कि एडवाइजरी बोर्ड के द्वारा उनको छोड़ना मुश्किल था। माननीय मुख्य न्यायधीश ने उन्हें याद भी दिलाया कि यह एडवाइजरी बोर्ड है। और उन्हें छोड़ भी सकती है पर उन्होंने अपने कथन या विचारों में कोई तबदीली नहीं किया। लिहाजा उन्हें एक साल तक जेल में रखने की सलाह बोर्ड ने दे दिया।मेरी कोई बातचीत वहां पिताजी के साथ नहीं हो सकी। वे पुलिस के जवाने से घिरे रहे। उन्हें जीप में बैठाकर फिर वापस भागलपुर जेल ले जाया गया। वहां भी लोग उनसे मिलने के लिये पहुंचने लगे। खासकर आदिवासी इलाके के लोग। बाद में उन्हें पटना बांकीपुर सैंट्रल में स्थानांतरित कर दिया गया। पटना हाई कोर्ट में उनके परिचित वकील श्री राम नंदन सहाय सिन्हा के द्वारा रीट याचिका दायर किया था पर वह खारिज हो गई। फिर उनकी सलाह से सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। मैं केस हार गया था। उस दिन फैसला सुनने के बाद जब मैं सिढियों पर बैठा तो कई विचार मेरे मन में कौंधने लगे।लालू हमें तो पूरी अवधि जेल में हीं रहकर निकालना पड़ेगा -एक दिन जब मैं उनसे मिलने बांकीपुर जेल गया तो वहां पर उनके साथ और कई नौजवान को पाया। बाद में मुझे पता चला कि वे नौजवान थे- श्री लालू प्रसाद यादव, श्री सुबोध कांत सहाय, श्री शिवा नंद तिवारी एवं श्री सुशील मोदी। बिनोद बाबू उनलोगों के पिता के उम्र के थे। बाद में वहीं पर बिनोद बाबू से लालू यादव ने पूछ दिया था कि दादा आप कब छुटेंगे। और हम कब छुटेंगे। उन्होंने बिना रूके हीं जबाब दे दिया था कि लालू हमें तो पूरी अवधि जेल में ही रहकर निकालना पड़ेगा। भले ही राजकिशोर सुप्रीम कोर्ट तक मामले को ले गया है। पर मुझे विश्वास नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट भी मुझे छोडेगा। श्री लालू प्रसाद ने पूछा ऐसा क्यों दादा? उन्होंने जबाब दिया थी कि यह बात तुम अच्छी तरह समझ लो कोर्ट-कचहरी में भी शासक वर्ग के लोग काबिज हैं। और डाउन ट्रोडन की लड़ाई को लड़ने वालों की बख्शा नहीं जायेगा। खासकर इस इमरजेंसी में तो बिल्कुल नहीं।पिताजी का कथन सही निकला -मैंने उनके कथन को बिलकुल सही पाया। महिनों चक्कर लगाने के बाद एवं न्यायलय में सैकड़ों ‘मीसा’ संबंधित मुकदमों को सुनने के बाद ‘मीसा’ कानून की जानकारी काफी हद तक हो गई। श्री आर के गर्ग, सीनीयर एडवोकेट उच्चतम न्यायलय के द्वारा मीसा कानून पर एक सप्ताह तक बहस की गई। संयोग से मैं दिल्ली ही गया था और पूरे सप्ताह तक उस बहस को सुना था। कई प्रावधानों के चलते मीसा कानून को ही चुनौती दी गई थी।हमें लगा था कि जो फैसला पिताजी के केस में दिया गया वह कानून सम्मत नहीं था। मेरे दिल में एक जलन सी उठी और मैं छटपटा कर रह गया कि काश मैं अपनी बात उन जजों के सामने रख सकता। पर ऐसा संभव नहीं था। मैं वकील नहीं था। वकील होने पर भी क्या सुप्रीम कोर्ट में बहस कर सकता। यहां तो बड़े नामी गिरामी सीनीयर एडवोकेट ही बहस करते हैं। तो मेरे मन में भी जो भावना उठी थी उस पर तुषारपात हो गया था।अब सवाल था क्या करुं। घर चलूं। वहां मां से क्या कहूंगा ? मुझसे छोटे सभी लोग पढ रहे थे। मुझसे छोटा नील कमल मेडीकल कॉलेज का विद्यार्थी था और पटना में राजेन्द्र नगर मे रहता था। हॉस्टल नहीं मिला था। पिछली बार तारा को पटना भेज कर मेडिकल कॉलेज के इन्ट्रेंस परीक्षा में बैठाया था पर सफल नहीं रही। इस बार भी बैठाना होगा यह तो अच्छा हुआ कि मेरी ससुराल पटना सिटी में है, सो ठहरने और खाने-पीने की कोई समस्या नहीं। बाकी भाई-बहन भी स्कूल कॉलेज में पढ रहे थे। घर का खर्च कैसे चलेगा यह सोच कर एक बार मन उदास हो गया। एक तरफ तो पिताजी बिनोद बाबू लाखों रूपये दान कर दिये स्कूल-कॉलेज बनवाने, झारखंड आंदोलन को आगे बढाने और कई लोगों को आर्थिक मदद करने में। लेकिन दूसरी ओर उनके मुकदमे लड़ने के लिये मुझे अपनी जमीन बेचने पड़ी। घर का खर्च अलग। पिताजी मां को कभी जरूरत से ज्यादा पैसे दिये नहीं। बेचारी अनपढ होते हुए भी समझदार थी। मैं एक ट्रक और एक छोटी मोटी माजाटक टाइल्स बनवाने की फैक्ट्री चलाता था। इस कारोबार और घर के किराये से काम चलाना पडता था। अपने छोटे छोटे बच्चों रजनीश और राजेश की चिंता किये बिना यहां-वहां दौड़ रहा था।मेरी पत्नी ने हर मुसिबत में साथ दिया -मेरी पत्नी क्या सोचती होगी? वह करोडपति घर की लड़की थी। जरूर अपनी किस्मत को कोस रही होगी। मेरी पत्नी एक करोड़पति घर की थी और मैं एक माइनिंग इंजीनियर। मैं सोचता रहा मैंने उन्हें क्या दिया? किस प्रकार का जीवन उसे दिया। पर सबसे आश्चर्य की बात तो यह थी कि उसने एक दिन भी मुझसे कोई शिकायत नहीं किया। अपनी पत्नी को याद कर उदास हो बैठा। मैं करीब दस मिनट तक ही सीढी पर बैठा रहा। मेरी तंद्रा दब टूटी, जब मेरे वकील ने मुझे पुकारा। मैं उठा और चुपचाप उनको नमस्ते करके चल दिया।सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सहमत नहीं था -सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला गलत था, ऐसा मेरा मानना था। मीसा कानून के तहत यह रुलींग है कि जो ग्राउंड नोटिस में दिये गये हों उनसे बाहर के तथ्यों पर निषेध आज्ञा आधारित नहीं होनी चाहिये। सरकार द्वारा दायर काउटंर एफिडेफिट यानि जबावी हलफनामें में यह साफ कहा गया था कि नोटिश में दिए गए मामलों के अलावे भी कोई मामले उनके विऱुद्ध लंबिंत थे और गंभीर पद्धति के थे। अत: उनको निषेध करने जेल में बंद करना जरूरी था।साफ जाहिर है कि निषेद्याज्ञा उन मामलों के अलावे, अन्य मामलों पर आधारित था, जो नोटिस में दिया गया नहीं था। इसी आधार पर हमें केस जीत जाना था। इसके अलावे उपायुक्त धनबाद स्वयं ही इस बात पर निश्चित नहीं थे कि उन्हें राज्य के आंतरिक सुरक्षा को बचाने के लिये पकड़ा गया है या पब्लिक ऑर्डर को बचाने के लिए। इस आधार पर तो हमें केस जीत जाना ही था। पर ऐसा नहीं हुआ। यह केस आई.ए.आर. जनरल 1974 के सुप्रीम कोर्ट के पेज 2225 में रिपोर्ट की गई है। इस फैसले ने मेरे भीतर एक खलबली मचा दी थी। मुझे न्यायपालिका खोखली लगने लगी थी। इस काले लिबास के अंदर का सच क्या है? इसे जानकर रहूंगा ऐसा सोचने लगा। मुझे याद आया कि मैं 1971 में वकालत पढने के लिये रांची में दाखिला लिया था। पर पढ नहीं पाया था, तीन साल यूं हीं उलझनों में निकल गये थे।मेरी मां सहित घर के सभी लोग उदास थे -जब लौटकर घर आया और सभी को पता चला कि पिताजी अभी नहीं छुटेंगे, सभी उदास हो गये। कितने दिनों बाद छुटेंगे यह भी कहना मुश्किल था। उनके जेल की अवधि बढाई भी जा सकती थी। घर के बड़े लोग, बड़ा कौन अनपढ ‘मां’। वह चुपचाप अपने दैनिक कामों में लिप्त हो गई। मामले की गंभीरता का अंदाज छोटे भाई बहन को हो ही नहीं सकती थी। मैं कुछ दिनो तक बांकिपुर जेल भी पिताजी से मिलने नहीं जा सका।अगर इस गेट को तोड़ दें तो दादाजी बाहर निकल आयेंगे -एक दिन रजनीश को लेकन उनसे मिलने जेल चला गया। पत्नी पटना में थी तो बच्चे भी वहीं थे। रजनीश की उम्र साढे चार साल थी दादाजी से मिलने की जिद्द करने लगा। उसे लेकर जब जेल पहुंचा तो लोहे के बडे फाटक के सामने पहुंच कर रजनीश चकीत था। वह उस फाटक को गौर से देख रहा था उसकी कुंडी खुली और मैं अपने पुत्र रजनीश के साथ दाखिल हुआ। पिताजी सामने खड़े थे उन्हे खबर दे दी गई थी। रजनीश के चेहरे पर उत्सुकता एवं मुस्कुराहट थी। पिताजी ने उसे अपने सीने से लगा लिया। फिर जब अलग होने लगे तो रजनीश ने कहा था कि दादाजी, अगर इस गेट को तोड़ दे तो आप बाहर निकल जायेंगे। पिताजी यह सुनकर भौचक्के लह गये। उन्होंने मुझसे कहा कि दुबारा इसे लेकर जेल में नहीं आना। रजनीश के मन में दादाजी के प्रति जो लगाव था और उसे किस प्रकार बाहर निकाल सकते था, उसके शब्दो से जाहीर हो गया था। वह बेचारा क्या फाटक तोड़ता सुप्रीम कोर्ट भी उस फाटक को खुलवा नहीं सकी।वकील बनने का फैसला –पिताजी को पूरी अवधि जेल में बितानी पड़ी। जब वे जेल से बाहर आये और धनबाद पहुंचे उस समय उनसे मेरी मुलाकात नहीं हो सकी। मैं लॉ की परीक्षा देने रांची गया हुआ था। और एक साथ सभी पार्टों की परीक्षा दे रहा था। सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले ने मुझे मजबूर कर दिया था कि मैं एक और फैसला ले लूं। लिहाजा वकील बनने का फैसला मैंने वहीं सुप्रीम कोर्ट की सीढियों पर बैठ कर लिया था।